भगवान महावीर ने व्यवहार जगत को संवारा
भगवान महावीर अब हमारे बीच नहीं हैं, पर भगवान महावीर की वाणी हमारे पास सुरक्षित है। महावीर की मुक्ति हो गयी है, पर उनके विचारों की कभी मुक्ति नहीं हो सकती। आज कठिनाई यह हो रही है कि महावीर का भक्त उनकी पूजा करना चाहता है, पर उनके विचारों का अनुगमन नहीं करना चाहता। उन विचारों का यदि अनुगमन किया जाता, तो देश की स्थिति ऐसी नहीं होती।
भगवान महावीर का दर्शन अहिंसा और समता का ही दर्शन नहीं है, क्रान्ति का दर्शन है। उनकी ऋतंभरा प्रज्ञा ने केवल अध्यात्म या धर्म को ही उपकृत नहीं किया, व्यवहार जगत को भी संवारा। महावीर भगवान अपनी और अपने स्वभाव की ओर देखने वाले थे। वे संसार के बहाव में बहने वाले नहीं थे। हम इस संसार के बहाव में निरन्तर बहते चले जा रहे हैं और बहाव के स्वभाव को भी नहीं जान पाते हैं।
आत्मस्थ होना यानि अपनी ओर देखना जो आत्मगुण अपने भीतर है उन्हें भीतर उतारकर देखना। अपने आप को देखना, अपने आप को जानना और अपने में लीन होना। यही आत्मोपलब्धि का मार्ग है। सदियों पहले महावीर जन्में। वे जन्म से महावीर नहीं थे। उन्होंने जीवन भर अनगिनत संघर्षों को झेला, कष्टों को सहा, दुःख में से सुख खोजा और गहन तप एवं साधना के बल पर सत्य तक पहुंचे, इसलिए वो हमारे लिये आदर्शों की ऊंची मीनार बन गये।
भगवान महावीर स्वामी ने अपनी दिशा बदली और उनकी दशा बदल गयी, वे सरागी से वीतरागी हो गए, अज्ञानी थे, केवल ज्ञानी हो गए। हमारे जैसे इंसान थे, महान हो गए। महान ही नहीं भगवान हो गए। भगवान महावीर स्वामी कहते हैं जो शरीर को ही आत्मा समझते हैं या आत्मा को शरीर समझते हैं वे बरिरात्मा है, मिथ्यादृष्टि है। ऐसे बरिरात्मा-मिथ्यादृष्टि जीव आत्मा से बेखबर होते हैं, मिथ्यादृष्टि अज्ञानी जो पुद्गल की र्प्यायों में उलझाकर उन्हें ही सत्य मानकर स्वयं को सुखी-दुखी, राजा-रंक, अमीर-गरीब, प्रभावहीन, प्रभावशील, सबल-निर्बल, सुन्दर-असुन्दर, ज्ञान और अज्ञानी समझता है।
स्वयं से अत्यन्त भिन्न, पति-पत्नि, माता-पिता को अपनाता है। ऐसे मिथ्यादृष्टि, अज्ञानी, जीवों को समझते हुए भगवान श्री महावीर स्वामी कहते हैं, ऐ भव्य जीव यदि सच्चा सुख चाहता है, तो पर पदार्थों से रागादि छोड़कर अपनी आत्मा का ध्यान कर, पर में ही तत्पर मत रह। दूसरों की चिन्ता में ही अपना बहुमूल्य समय बर्बाद मत कर, अपनी आत्मा की भी चिन्ता कर, क्योंकि आत्मा के चिन्तन से ही सच्चा सुख प्राप्त होगा। जन्म जयंती की हार्दिक शुभकामना।
– इंजि. अजय बाकलीवाल,
अध्यक्ष, श्री सकल दिगम्बर जैन समाज समिति (रजि.), कोटा
भगवान महावीर की वाणी ‘जीओ और जीने दो’
भगवान महावीर की मूल शिक्षा है- ‘अहिंसा’। सबसे पहले ‘अहिंसा परमो धर्मः’ का प्रयोग हिन्दुओं का ही नहीं बल्कि समस्त मानव जाति के पावन ग्रन्थ महाभारत के अनुशासन पर्व में किया गया था। लेकिन इसको अन्तर्राष्ट्रीय प्रसिद्धी दिलवायी भगवान महावीर ने।
भगवान महावीर ने अपनी वाणी से और अपने स्वयं के जीवन से इसे वो प्रतिष्ठा दिलायी कि अहिंसा के साथ भगवान महावीर का नाम ऐसा जुड़ गया कि दोनों को अलग कर ही नहीं सकते। अहिंसा का सीधा-सादा अर्थ करें तो वह होगा कि व्यवहारिक जीवन में हम किसी को कष्ट नहीं पहुंचायें, किसी प्राणी को अपने स्वार्थ के लिये दुख न दें।
‘आत्मानः प्रतिमकूलानि परेषाम् न समाचरेत’ इस भावना के अनुसार दूसरे व्यक्तियों के साथ ऐसा व्यवहार करें जैसा कि हम उनसे अपने लिये अपेक्षा करते हैं। इतना ही नहीं सभी जीव-जन्तुओं के प्रति अर्थात् पूरे प्राणी मात्र के प्रति अहिंसा की भावना रख कर किसी प्राणी की अपने स्वार्थ व जीभ के स्वाद आदि के लिये हत्या न तो करें ना ही करवायें और हत्या से उत्पन्न वस्तुओं का भी उपभोग न करें।
भगवान महावीर आदमी को उपदेश/दृष्टि देते हैं कि धर्म का सही अर्थ समझो। धर्म तुम्हें सुख, शान्ति, समृद्धि, समाधि, आज, अभी दे या कालक्रम से दे, इसका मूल्य नहीं है। मूल्य है धर्म तुम्हे समता, पवित्रता, नैतिकता, अहिंसा की अनुभूति कराता है। महावीर का जीवन हमारे लिये इसलिये महत्वपूर्ण है कि इसमें सत्य धर्म की व्याख्या सूत्र निहित है, महावीर ने उन सूत्रों को ओढ़ा नहीं था साधना की गहराईयों में उतरकर आत्म चेतना के तल पर पाया था।
आज महावीर के पुनर्जन्म की नहीं बल्कि उनके द्वारा दिये गये आदर्श जीवन के अवतरण की/पुनर्जन्म की अपेक्षा है। जरूरत है हम बदलें हमारा स्वभाव बदले और हम हर क्षण महावीर बनने की तैयारी में जुटें तभी महावीर जयन्ती मनाना सार्थक होगा। महावीर बनने की कसौटी है-देश और काल से निरपेक्ष और जाति और संप्रदाय की धारा से मुख्य चेतना का आविर्भाव।
भगवान महावीर एक कालजयी और असांप्रदायिक महापुरूष थे जिन्होंने अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त को तीव्रता से जिया वे इस महान त्रिपदी के न केवल प्रयोक्ता और प्रणेता बने बल्कि पर्याय बन गए। जहां अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त की चर्चा होती है वहां भगवान महावीर का यशस्वी नाम स्वतः ही सामने आ जाता है।
हम सब पंथवाद, संतवाद एंव विचारों की भिन्नता को छोड़कर समाज संगठित रहे, एक रहे ऐसी भावना से आगे बढ़ते रहें।
– विनोद जैन टोरड़ी,
महामंत्री
श्री सकल दिगम्बर जैन समाज समिति, कोटा
ऐसे थे हमारे भगवान महावीर
आज भगवान महावीर स्वामी का 2617 वां जन्म जयन्ती महोत्सव है। जिसे मात्र जैन ही नहीं जैनेत्तर भी श्रद्धा से मनाते हैं क्योंकि उन्होंने जीओ और जीने दो का ऐसा महान नारा दिया जो आज विश्व शांति का आधार बन गया है।
भगवान महावीर स्वामी का जन्म चैत्र सुदी त्रयोदशी को कंुडलपुर नगर में राजा सिद्धार्थ और महारानी त्रिशला के यहां हुआ था। पूर्व के 23 तीर्थंकरों की तरह उनके जन्म के पूर्व मां ने 16 स्वप्न देखे थे। देवों ने अति उत्साह से गर्भ के 6 माह पूर्व से ही रत्नवर्षा प्रारम्भ कर दी थी, जिससे कुंडलपुर नगरी रत्नमयी हो गयी थी। जन्म के बाद देवों ने पांडुक शिला पर ले जाकर भगवान का जन्माभिषेक किया था।
वीर, अतिवीर, महावीर, सन्मति और वर्धमान ये भगवान के नाम थे। वे जन्म से ही तीन ज्ञान के धारी और बाल ब्रह्मचारी थे। उन्होंने राज्य नहीं स्वीकारा, अपितु 30 वर्ष की आयु में असिधार दिगम्बर वेश को धारण किया था। उन्हें 42 वर्ष की उम्र में केवलज्ञान हो गया था। केवलज्ञान के पश्चात भगवान का जगह-जगह समोशरण लगा, जिसमें उन्होंने प्राणियों को हितपरक उपदेश दिया। पहले विज्ञान उनके सिद्धान्तों को स्वीकार नहीं करता था पर आज तक जो भी शोध हुयी है, उसमें वे सिद्धान्त सौ प्रतिशत सत्य सिद्ध हुये हैं। अतः वे तीर्थंकर ही नहीं सत्य धर्म के महावैज्ञानिक थे।
महात्मा गांधी ने भी महावीर भगवान के अहिंसा रूपी शस्त्र के बल से भारत को स्वतंत्रता दिलायी थी। आज हम अहिंसा की बात तो बहुत कर लेते हैं लेकिन अहिंसा को सत्यतः धारण नहीं कर पाते। जैसे जीव रक्षा के लिये घर में फूल झाडूं रखते हैं पर चीटियां वगैरह झाड़कर रास्ते पर या ऐसे स्थान पर फैंक देते हैं, जहां उनके प्राणों का बचना भी संभव नहीं रहता। पानी को छानते हैं पर नल में वर्षों वर्ष बंधे छन्ने से जहां मृत जीव पहले से ही सड़ चुके होते हैं। महिलायें सिर से जूं निकालती है और पानी आदि में डाल देती हैं। फैशन के नाम पर हजारों बेकसूर प्राणियों की हत्या की जा रही है। ध्यान दीजिये यदि हम भगवान महावीर स्वामी के वंशज होकर भी उनके सिद्धान्तों पर नहीं चल सके तो हमारा जैन होना व्यर्थ है।
बन्धुओं ! कहने का तात्पर्य है – हम भगवान महावीर को ही न माने अपितु उनकी भी मानें, तब तो उनको मानना श्रेष्ठ होगा। भगवान महावीर मात्र जैनों के ही नहंीं प्राणी मात्र के हैं। तभी तो आप नारे लगाते हैं-
‘जैन धर्म किसका है, जो माने उसका है’
आज हम उन महान तीर्थंकर के चरणों में नमन कर रहे हैं, जिन्होंने हिंसा के तांडव भरे वातावरण में जन्म लिया और अकेले ही मोक्ष मार्ग पर अग्रसर होकर अपने उपदेशों से जन-जन में अहिंसा की अलख जगाई और अंत में पावापुरी से मोक्ष पधारे।
– जे.के. जैन (बरखा)
कार्याध्यक्ष
श्री सकल दिगम्बर जैन समाज समिति, कोटा