दिनेश सी शर्मा
नई दिल्ली, इंडिया साइंस वायर
बंगलूरु स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान के वैज्ञानिकों ने पता लगाया कि अस्थमा की एक प्रचलित दवा टीबी के इलाज में भी कारगर हो सकती है। वैज्ञानिकों के अनुसार यह दवा टीबी में दवाओं की विकसित होती प्रतिरोधक क्षमता की चुनौती से लड़ने में मददगार हो सकती है।
व्यापक अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पाया है कि प्रॅनल्यूकास्त नामक यह दवा टीबी के लिए जिम्मेदार बैक्टीरिया माइकोबैक्टीरियम ट्यूबर्क्युलोसिस (एमटीबीद्) में एक विशिष्ट चयापचय मार्ग को नष्ट कर देती हैए जो इस बैक्टीरिया के जीवित रहने के लिए जरूरी है।
इस दवा की खास बात है कि यह मानव कोशिकाओं को नुकसान पहुंचाए बिना काम करती है। इससे पहले जानकारी नहीं थी कि इस बैक्टीरिया के चयापचय मार्ग को दवा के जरिये लक्ष्य बनाकर टीबी का उपचार किया जा सकता है।
आमतौर पर टीबी के उपचार के लिए उपयोग होने वाली दवाएं मानव कोशिकाओं में इस बीमारी के लिए जिम्मेदार बैक्टीरिया की संख्या को बढ़ने से रोकती हैं. पर इसका विपरीत असर कोशिकाओं पर भी पड़ता है। इस समस्या से निपटने के लिए वैज्ञानिकों ने टीबी की बीमारी पैदा करने वाले बैक्टीरिया के अस्तित्व के लिए जरूरी उसके चयापचय तंत्र को निशाना बनाया है।
वैज्ञानिकों ने पाया है कि यह बैक्टीरिया अपने अस्तित्व के लिए आर्गिनिन बायोसिंथेसिस नामक एक खास तंत्र का उपयोग करता है। इस तंत्र में अवरोध पैदा किया जाए तो यह बैक्टीरिया मर जाता है। प्रॅनल्यूकास्त दवा को इस भूमिका के लिए कारगर पाया गया है।
प्रोण् अवधेश सुरोलिया के निर्देशन में शोधरत पीएचडी छात्रा अर्चिता मिश्रा ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि श्हमारे दृष्टिकोण में टीबी को दो तरीके से लक्षित करना शामिल है। हमने पाया है कि प्रॅनल्यूकास्त एमटीबी के खिलाफ एक शक्तिशाली अवरोधक के रूप में कार्य करती है। अध्ययन में यह भी दर्शाया गया है कि यह दवा अपने लक्ष्य को कुछ इस तरह निशाना बनाती है कि मानव शरीर के भीतर टीबी के बैक्टीरिया के जीवित रहने की संभावना खत्म हो जाती है।
प्रॅनल्यूकास्त एफडीए से मान्यता प्राप्त दवा है जिसका उपयोग दमा.रोधी के रूप में दुनिया भर में होता है। अब स्पष्ट हो गया है कि टीबी के उपचार में भी इस दवा का उपयोग किया जा सकता है। प्रोण् सुरोलिया के अनुसार श्प्रॅनल्यूकास्त का उपयोग टीबी के उपचार के लिए अभी इस्तेमाल हो रही दवाओं के साथ किया जा सकता हैए जिससे टीबी थैरेपी को अधिक कारगर बनाया जा सकता है।
अध्ययनकर्ताओं का कहना यह भी है कि प्रॅनल्यूकास्त का उपयोग पहले से हो रहा है। इसलिए इसके उपयोग से पहले नए सिरे से कई वर्षों तक किये जाने वाले परीक्षणों की जरूरत नहीं है और यह मानवीय उपयोग के लिए सुरक्षित है।
इस अध्ययन के नतीजे एम्बो मॉलिक्युलर मेडिसिन नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित किए गए हैं। यह अध्ययन विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभागए वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषदए जैव प्रौद्योगिकी विभाग और इंडियन मेडिकल काउंसिल द्वारा दिए गए अनुदान पर आधारित है।
अध्ययनकर्ताओं की टीम में अर्चिता मिश्रा के अलावा आशालता ,राजू सण् राजमणि, अनन्या रे, रंजना रॉय और अवधेश सुरोलिया शामिल थे।
(इंडिया साइंस वायर)