विश्व जल दिवस पर विशेष: जल पुरूष राजेन्द्र सिंह से बातचीत
नवनीत कुमार गुप्ता
न्यूजवेव @ नईदिल्ली
आज देश के कुछ राज्यों में पानी की कमी वाले गांवों में लड़कों की शादियां नहीं हो रही है। कोई बेटी देना पसंद नहीं करता। क्योंकि ‘जल बिन सब सून’ आज एक चुनौती है। लेकिन ऐसे विपरीत हालात में भी कुछ शख्स ऐसे है जो जल संरक्षण के लिये जागरूकता पैदा करने के लिये अनवरत संघर्षरत हैं। ऐसे ही अग्रणी जल पुरूष राजेन्द्र सिंह से एक बातचीत-
आपने चिकित्सक जैसे क्षेत्र को छोड़कर जल संरक्षण के क्षेत्र में कैसे काम आरंभ किया ?
जब मैंने देखा कि बादल तो आते है लेकिन मेरे गांव में बरसते नहीं है। तो तय किया कि बादलों को बरसाना है मेरे गांव में। इसके लिए पानी का विज्ञान मुझे किसी विद्वान ने नहीं मेरे ही आसपास के लोगों ने समझाया। जिनसे समझा कि सूर्य की गर्मी से समुद्र के पानी से बने बादल गांव से होकर गुजर जाते हैं लेकिन बरसते नहीं। बादल वहां बरसते है, जहां हरियाली होती है। क्योंकि वहां हवा का दबाव कम होता है। फिर हमनें बांध बनाए। पूरे समाज ने मिलकर 11800 बांध बनाए। इनके बनने से हरियाली बढ़ने लगी।
बेपानी हुए क्षेत्र को किस तरह पानीदार बनाया
यदि हम पानी का उत्पादन समझना चाहते हैं तो पहले पानी की ताकत समझनी बारिश के बाद मिट्टी से अंकुर फुटने लगते हैं। पानी जब मिट्टी से मिलता है तो जीवन उत्पन्न होता है। जो मिट्टी निर्जीव है उसमें पानी मिलने से छोटी-छोटी वनस्पतियां उत्पन्न होने लगती हैं। हमारा क्षेत्र रेन शेडो क्षेत्र था। बादल तो आते थे हर साल मेरे गांव में, पर रूठकर चले जाते थे, मुझे ना मालुम था वो जाते थे कहां। हमनें विचार किया कि हम वाष्पोर्जन को कैसे रोक सकते हैं। हम कैसे बेपानी से पानी कृपानी हो सकते हैं। बादल जब आए और बरसने लगे तो वह दौड़कर न चले उसे चलना सीखा दो। हमने सोचा कि हम सूर्य की नजर हमारे पानी भंडारों को नहीं लगने देंगे। हमनें ढलान पर बांध बनाए जहां से पानी रिचार्च होने लगा। लेकिन हमने परंपरागत ज्ञान से छोटेकृछोटे बांध बनाए। बांधों में बारिश का पानी आने लगा और उस पानी से भूमिगत जल स्तर में भी वृद्धि होने लगी। हमारे आसपास के 12 सौ गांवों में ढाई लाख कुओं में पानी आ गया। अगर दो-तीन साल बारिश कम भी हो तो इनमें पानी रहता है। इसके अलावा हमनें अपनी फसल पैटर्न को रेन पैटर्न से जोड़ने की कोशिश की। कम पानी से ज्यादा फसल लेने का प्रयास किया। समाज के प्रयासों से बेपानी हुआ क्षेत्र जिसे पहले डार्क जोन कहते थे अब पानीदार यानी व्हाईट जोन में बदला।
इस बदलाव से वहां की जलवायु पर क्या प्रभाव पड़ा
पानी की उपस्थिति खुशहाली लाती है। जब हमने 1980 के दशक में काम आरंभ किया था तो हमारे क्षेत्र में केवल दो प्रतिशत हरियाली थी लेकिन अब हमारे यहां 48 प्रतिशत हरियाली है। 48 प्रतिशत जमीन पर पेड़-पौधे हैं। पानी आने से जो हरियाली बढ़ी उससे कार्बन डाइऑक्साइड जैसी ग्रीन हाउस गैसों का भी बड़ी मात्रा में अवशोषण हुआ। हमारे इलाके में जहां मई में तापमान 49 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता था। अब तापमान 46 डिग्री सेल्सियस तक ही जाता है। धरती पर हरियाली बड़ी तो हमारी आमदनी भी बड़ी। पहले हमारे गांव के लोग जयपुर आदि शहरों में काम करते थे आज वो खेतों में सब्जियां उगा कर शहरों के लोगों को रोजगार दे रहे हैं। बेपानी हुए क्षेत्रों से जब लोग दिल्ली गए थे तो उनके जीवन में लाचारी, गरीबी और बीमारी थी लेकिन जब पानी आने से ऐसे लोग वापिस गांव आए तो उनके जीवन में खुशहाली आई। जो सूरत, दिल्ली और मुम्बई गए थे वो वापिस आए। लगभग ढाई लाख वापस गांवों में आए। उन्हें गांव में स्वच्छ हवा मिलने लगी।
तरूण भारत संघ के प्रणेता- जल पुरूष राजेंद्र सिंह
‘पानी के लिए नोबेल‘ के नाम से विख्यात स्टॉकहोम जल पुरस्कार और मेगसेसे पुरस्कार से सम्मानित डा. राजेन्द्र सिंह देश में जल संरक्षण से जुड़ी मुहिम के अगुआ हैं। आज उनकी पहचान जल पुरूष एवं पर्यावरण कार्यकर्ता के रूप में हैं। आज पूरी दुनिया उन्हें जल संरक्षण के क्षेत्र में उल्लेखनिय कार्य के लिए जानती है। उन्हें सामुदायिक नेतृत्व के लिए 2011 में रेमन मैगसेसे पुरस्कार दिया गया था।
राजेन्द्र सिंह का जन्म 6 अगस्त 1959 को, उत्तर प्रदेश के बागपत जिले के डौला गाँव में हुआ। हाई स्कूल पास करने के बाद उन्होंने भारतीय ऋषिकुल आयुर्वेदिक महाविद्यालय से आयुर्विज्ञान में डिग्री हासिल की। फिर उन्होंने जनता की सेवा के भाव से गाँव में प्रेक्टिस करने का इरादा किया। कुछ महीनों बाद वह जयप्रकाश नारायण की पुकार पर छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के साथ जुड़ गए। इसके लिए उन्होंने छात्र बनने के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय से सम्बद्ध एक कॉलेज में एम.ए. हिन्दी में प्रवेश ले लिया।
1981 में उनका विवाह हुए बस डेढ़ बरस हुआ था, उन्होंने नौकरी छोड़ी, घर का सारा सामान बेचा। कुल 2300 रुपए की पूँजी लेकर अपने कार्यक्षेत्र में उतर गए। उन्होंने ठान लिया कि वह पानी की समस्या का कुछ हल निकलेंगे। 8000 रुपये बैंक में डालकर शेष पैसा उनके हाथ में इस काम के लिए था।राजेन्द्र सिंह के साथ चार और साथी आ जुटे थे, यह थे नरेन्द्र, सतेन्द्र, केदार तथा हनुमान। इन पाँचों लोगों ने तरुण भारत संघ के नाम से एक संस्था बनाई जिसे एक गैर-सरकारी संगठन का रूप दिया। दरअसल यह संस्था 1978 में जयपुर यूनिवर्सिटी द्वारा बनाई गई थी। राजेन्द्र सिंह ने उसे जिन्दा किया और अपना लिया। इस तरह तरुण भारत संघ उनकी संस्था हो गई।