देश के गांव, गलियों और शहरों में पॉलिथीन कचरे से नालियां, नाले और नदियां अवरूद्व हो रही हैं। इतना ही नही, ताजा अध्ययन बता रहे हैं कि जब से प्लास्टिक कचरे का उपयोग भूमि भराव में हो रहा हैं, समुद्र तेजी से प्रदूषित होकर जलवायु परिवर्तन के लिये नया सबक बन गये हैं। मछलियां पॉलिथीन खा रही हैं, उनको पकड़कर इंसान दोबारा उनको खा रहे हैं। अर्थात पॉलिथीन वहीं वापस आ रहा हैं। शहरों में गाय-भैंसे पॉलिथीन थैलियां खाकर बीमार हो रही हैं, उनका प्रदूषित दूध इंसानों को भी बीमार कर रहा है।
एक अध्ययन के अनुसार, पॉलिथीन कचरे को रिसाइकिल कर काली पॉलिथीन के रूप में उपयोग में लेना और भी घातक साबित हो रहा है। जिससे कैंसर जैसे रोगो की वृद्धि हो रही है। दुनिया में 6.3 बिलियन मीट्रिक टन कचरे में से 9 प्रतिशत पॉलिथीन रिसाइकिल की जा रही है। इसमें से 10 प्रतिशत को एक से अधिक बार रिसाइकिल किया जाता है। 12 प्रतिशत प्लास्टिक को इंसीनरेटर से नष्ट कर देते हैं। शेष 78 प्र्रतिशत प्लास्टिक कचरे को भूमि में भराव के लिये उपयोग किया जा रहा है, जिससे अन्ततः समुद्र प्रदूषित होने लगे हैं।
पांचवां हिस्सा नालियों में जमा
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट के अनुसार, देश के अधिकांश बडे़ शहरों से रोज निकलने वाले कचरे में 10 प्रतिशत मात्रा प्लास्टिक कचरे की होती है। आईआईटी खडगपुर की एक रिपोर्ट कहती है, दिल्ली में मानसून के दौरान गुटखा व पान मसाला पाउच कचरे का पांचवां हिस्सा नालियों में जमा हो जाता है।
पर्यावरण संतुलन के लिये स्थिति भयावह है। ऐसे में सभी राज्य सरकारें प्लास्टिक कचरे से भूमि भराव पर रोक लगाकर नई टेक्नोलॉजी की मदद से बायो डीजल बनाने का महाभियान प्रारंभ कर सकती है। इसके लिये शहरों से गांवों तक क्लस्टर योजना बनाई जाये। जिसमें प्लास्टिक से डीजल बनाने की छोटी ईकाईयां लगाने के लिये शिक्षित बेरोजगारों को प्रशिक्षण देकर स्वरोजगार के लिये प्रेरित किया जाये। इससे ‘आत्मनिर्भर भारत’ की परिकल्पना में गांवों से शिक्षित युवाओं का पलायन भी रूकेगा।
वैज्ञानिक रिसर्च बताते हैं कि पॉलिथीन पेट्रोलियम उत्पाद ही है, जिसमें कार्बन व हाइड्रोजन की मात्रा अधिक होती है। पॉलिथीन को जलाने पर कार्बन डाई ऑक्साइड पैदा होती है। वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो पॉलिमर से पॉलिथीन बनती है। पॉलिमर का कच्चा माल क्रूड ऑयल से निकलता है। इसे प्राकृतिक ढंग से 500 से 1000 साल तक खत्म नहीं किया जा सकता। लेकिन मौजूदा प्रचलन में भूमि में पॉलिथीन दबाने से मीथेन व ईथेन गैसें निकलती हैं, जिससे भूजल प्रदूषित हो रहा है। इतना ही नहीं, पॉलिथीन से भूमि की अम्लीयता बढ़ जाती है और उर्वरकता कम हो जाती है। इससे जमीन में परतं जमा हो जाती है, जिससे भूजल नीचे जाने से रूक जाता है।
पॉलिथीन थैलियों का चलन दोगुना
प्लास्टिक अधिनियम के अनुसार, खाद्य पदार्थों के लिये उपयोगी की जाने वाली पॉलिथीन थैलियां (कैरी बेग) 50 माइक्रोन से अधिक मोटाई की नहीं होनी चाहिये। देश के अन्य राज्यों की तरह राजस्थान में भी ऐसे कैरी बेग के निर्माण, बिक्री एवं उपयोग को प्रतिबंधित किया गया है। इसके बावजूद आज शहरों से गांवों तक पॉलिथीन थैलियों का चलन दोगुना हो गया है। 15 अगस्त,2019 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देशवासियों को प्लास्टिक उत्पादों को एक बार ही उपयोग करने पर जोर दिया था। पर्यावरण संतुलन के लिये उन्होंने 2 अक्टूबर को फिर से आव्हान किया कि गांवों से शहरों तक आज जनता पॉलिथीन मुक्त वातावरण बनाने में सहयोग दे। लेकिन इसके लिये प्रभावी कार्ययोजना पर अमल करना जरूरी है।
8 ग्राम प्लास्टिक कचरा रोज
पर्यावरण संस्थाओं के ताजा आंकडें देखें तो भारत में प्रति व्यक्ति रोजाना 8 ग्राम प्लास्टिक कचरा निकलता है तो हर शहर में प्रतिमाह लाखों टन के रूप में एकत्रित हो रहा है। ट्रेचिंग ग्राउंड पर लाखों टन कचरे का वैज्ञानिक ढंग से निस्तारण नहीं हो पाने से मीथेन, ईथेन व कार्बन डाई आक्साइड गैसें भूजल व पर्यावरण के लिये चुनौती बन गई हैं। वैज्ञानिक रिपोर्ट के अनुसार, बढते कार्बन उर्त्सजन के कारण प्रतिवर्ष धरती के तापमान में 0.7 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो रही है।
पुणे में रूद्रा ग्रीन फ्यूचर प्रोजेक्ट
पुणे में एनजीओ रूद्रा इन्वायरमेंटल सॉल्यूशन ने वर्ष 2009 में प्लास्टिक कचरे से डीजल बनाने के लिये 500 किलोग्राम क्षमता का प्लांट प्रारंभ किया। जिसकी थर्मो केटेलिक डिपॉलिमराइजेशन (टीसीडी) प्रक्रिया में वेस्ट प्लास्टिक मैटेरियल का उपयोग कर उपयोगी ईंधन तैयार किया जा रहा है। इसे संचालन में बिजली की आवश्यकता नहीं है क्यांेकि इससे निकलने वाली सिंथेटिक गैस को इनर्जी के रूप में उपयोग करते हैं। यही प्रयोग प्रत्येक शहर में निकायों द्वारा प्रारंभ किया जा सकता है।
ऐसे बनाते हैं बायो डीजल
आईआईटी मद्रास की एक रिपोर्ट के अनुसार, डीजल बनाने के लिये पॉलिथीन कचरे को ऑक्सीजन रहित बंद चैम्बर में रखकर इसे 150 से 450 डिग्री सेल्सियस तक गर्म किया जाता है। 380 से 430 डिग्री ताप पर वाष्पीकृत होकर इसे सामान्य ताप पर कन्डेस कर लेते हैं। इसके बाद फिल्टर करके ईंधन तैयार किया जाता है, जिसमंे सल्फर नगण्य होता है। ज्वलनशील होने से यह डीजल की भांति ईंधन का कार्य करता है। इस विधि मंे 65 प्रतिशत डीजल व 35 प्रतिशत चारकोल तैयार होता है, जिसे बिटुमिन के साथ मिलाकर भूमि के भराव एवं सड़क निर्माण में काम ले सकते हैं।
देहरादून में प्लास्टिक से डीजल बनाने की शुरूआत
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ.हर्षवर्धन ने 28 अगस्त, 2019 को सीएसआईआर, देहरादून के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पेट्रोलियम में प्लास्टिक से डीजल बनाने के प्रोजेक्ट की शुरूआत की थी। इस प्रोजेक्ट में वैज्ञानिकों ने एक टन प्लास्टिक कचरे से प्रतिदिन 800 लीटर डीजल पैदा करने में सफलता प्राप्त की है। गेल इंडिया ने इसमें तकनीकी सहयोग किया है। इतना ही नहीं, बायो जेट फ्यूल से एयरक्राफ्ट उडान में भी सफलता मिली है। निकट भविष्य में प्रत्येक शहर में 10 टन क्षमता के प्रोजेक्ट स्थापित कर शहरों को पॉलिथीन के जहर से मुक्त किया जा सकता है।
(लेखक आर.एन.गुप्ता कोटा सुपर थर्मल पावर स्टेशन के उप मुख्य अभियंता हैं)